ललितललाम
सरस भाव मन्दार सुमन से समधिक हो हो सौरभ धाम। नन्दन बन अभिराम लोक अभिनन्दन रच मानस आराम। लगा लगा कर हृतांत्री में मानवता के मंजुल तार। सूना सूना कर वसुधा-तल को सुधा भरा उसकी झनकार।1। गा गा कर अनुराग राग से रंजित-अनुरागी जन राग। धान को लय को स्वर समूह को सब स्वर्गीय रसों में पाग। चारु चार नयनों को दिखला जग आलोकित कर आलोक। कला निराली कली कली में कला कलानिधि में अवलोक।2। बढ़ा चौगुनी चतुरानन से चींटी तक सेवा की चाह। बहु विमुग्ध हो बहे हृदय में आपामर का प्रेम-प्रवाह। कलित से कलित कामधेनुसम कामद कर कमनीय कलाम। ललित से ललित बनबन देखा अललित चित में ललितललाम।3।

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