सिलसिला जुम्बाँ इक तन्हा से रूह किसी तन्हा की थी
सिलसिला जुम्बाँ इक तन्हा से रूह किसी तन्हा की थी एक आवाज़ अभी आई थी वो आवाज़ हवा की थी बे-दुनियाई ने इस दिल की और भी दुनिया-दार किया दिल पर ऐसी टूटी दुनिया तर्क ज़रा दुनिया की थी अपने अंदर हँसता हूँ मैं और बहुत शरमाता हूँ ख़ून भी थूका सच-मुच थूका और ये सब चालाकी थी अपने-आप से जब मैं गया हूँ तब की रिवायत सुनता हूँ आ कर कितने दिन तक उस की याद मुझे पूछा की थी हूँ सौदाई सौदाई सा जब से मैं ने जाना है तय वो राह-ए-सर-ए-सौदाई मैं ने बे-सौदा की थी गर्द थी बेगाना-गर्दी की जो थी निगह मेरी ताहम जब भी कोई सूरत बिछड़ी आँखों में नम-नाकी थी है ये क़िस्सा कितना अच्छा पर मैं अच्छा समझूँ तो एक था कोई जिस ने यक-दम ये दुनिया पैदा की थी

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