घनश्याम
श्याम रंग में तो न रँगे हो जो अन्तर रखते हो श्याम। तो जलधार हो नहीं विरह-दव में जो जल जल जीवें बाम। जीवनप्रद हो तभी करो जो तुम चातक को जीवन दान। कैसे सरस कहें हम तुमको ऊसर हुआ न जो रसवान।1। कैसे हो परजन्य, वियोगी जन को जो हो दुखद वियोग। पयद न हो जो दल जवास का पला न कर उसका उपयोग। बने पयोधार पर न सके कर पय प्रेमिक-मराल प्रतिपाल। बिलसित रहे बहन कर उर पर आप बलाका मंजुल माल।2। बहुधा करते हो बसुधा का बिपुल उपल द्वारा अपकार। इसीलिए कर घोर नाद हो सहते दामिनि-कशा-प्रहार। उमड़ उमड़ बर बारिबाह बन हो भर देते सरि सर ताल। रहता है प्यासे पपीहरा को कतिपय बूँदों का काल।3। अशनि-पात-प्रिय, अधार-विलंबी, करक-निकेतन, दानव-देह। हो तुम मशक-दंश-अवलम्बन तुम्हें कुटिल अहिका है नेह। रहे भरे ही को जो भरते बरस बारि-निधि में बसु याम। तो नभतल में घरी घरी घिर रहे घूमते क्या घनश्याम।4।

Read Next