फ़ज़ा-ए-मय-कदा बे-रंग लग रही है मुझे
फ़ज़ा-ए-मय-कदा बे-रंग लग रही है मुझे रग-ए-गुलाब रग-ए-संग लग रही है मुझे ये चंद दिन में क़यामत गुज़र गई कैसी कि आज सुल्ह तिरी जंग लग रही है मुझे मिरे मकान से दो-गाम पर है तेरी गली ये आज सैकड़ों फ़रसंग लग रही है मुझे नवा-ए-नग़मा भी हैं सोज़-ओ-साज़ से ख़ाली फ़ुग़ाँ भी ख़ारिज-अज़-आहंग लग रही है मुझे ज़रूर फिर कोई उफ़्ताद पड़ने वाली है कि ये ज़मीन बहुत तंग लग रही है मुझे

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