वक्तव्य
मति मान-सरोवर मंजुल मराल। संभावित समुदाय सभासद वृन्द। भाव कमनीय कंज परम प्रेमिक। नव नव रस लुब्धा भावुक मिलिन्द।1। कृपा कर कहें बर बदनारबिन्द। अनिन्दित छवि धाम नव कलेवर। बासंतिक लता तरु विकच कुसुम। कलित ललित कुंज कल कण्ठ स्वर।2। क्यों बिमुग्ध करते हैं मानव मानस। मनोहरता है मिली क्यों उन्हें अपार। चिन्तनीय क्या नहीं है यह चारु कृति। अनुभवनीय नहीं क्या यह व्यापार।3। कल कौमुदी विकास विकासित निशि। सकल कला निकेत कान्त कलाधार। अनन्त तारकावली लसित गगन। अलौकिक प्रभा पुंजमय प्रभाकर।4। उत्ताल तरंग-माला आकुल जलधि। कल कल नाद-रता उल्लासित सरि। नव नव लीला मयी निखिल अवनि। आलोक किरीट शोभी गौरवित गिरि।5। अवलोक होता नहीं क्या चकित चित। क्या हृदय होता नहीं बहु विकसित। भव कवि-कुल-गुरु कल कृति मधय। अलौकिक काव्य कला क्या नहीं निहित।6। एक एक रजकण है भाव प्रवण। एक एक बन तृण है रहस्य थल। उच्च कल्पना प्रसूत लालित्य निलय। तरु का है एक एक फल फूल दल।7। रस-सोत कहाँ पर नहीं प्रवाहित। कमनीयता है कहाँ नहीं विद्यमान। विलसित कहाँ नहीं लोकोत्तार कान्ति। मुग्धता नहीं है कहाँ पर मूर्तिमान।8। कर सका जो प्रवेश रस-सोत मध्य। अवलोक सका जो कि लालित्य ललाम। जो जन विमुग्ध बना मुग्धता बिबश। धरातल में है हुआ वही लब्धा काम।9। जान सका जितना हो जो यह रहस्य। वह उतना ही हुआ प्रेम-पय-सिक्त। उतना ही चित हुआ उसका अमल। वह उतना ही हुआ रस-अभिषिक्त।10। होगा वही निज देश सुत प्रेम मत। होगा वही निज जाति-अनुराग रत। ग्रहण करेगा वही स्वतंत्रता-मंत्र। साधन करेगा वही स्वाधीनता-व्रत।11। मानस मुकुर मधय उसी के, समस्त। रहस्य प्रति फलित होगा यथोचित। उसी का पुनीत मन करेगा मनन। यथा तथ्य मननीय प्रसंग अमित।12। हो सकेगा वही देश-दुख से दुखित। हो सकेगा वही जाति-हित में निरत। उसी का बिचार होगा उन्नत उदार। लोक हित रत होगा वही अविरत।13। आत्म त्याग ब्रत ब्रती अचल अटल। वही होगा धीर बीर पावन चरित। सरल विशाल उर उन्नत स्वभाव। वही होगा अति पूत भाव से भरित।14। होवेगा मधुर तर उसका कथन। सरस सओज शुचि महा मुग्धाकर। होती है उसी में वह संजीवनी शक्ति। पाके जिसे जाति बने अजर अमर।15। पाकर उसी से जग प्रथित विभूति। होते हैं सओज ओज-रहित सकल। तेज:पुंज कलेवर परम निस्तेज। सजीव निर्जीव तथा सबल अबल।16। उसी के प्रभाव से हैं प्रभावित वेद। सकल उपनिषद आगम अखिल। भवताप तप्त हित वही है जलद। वही है पातक पंक पावन सलिल।17। पुनीत महाभारत तथा रामायण। उसी की विमल कीर्ति के हैं वर केतु। पा जिसे जातीयता है आज भी जीवित। गौरव सरित वर के हैं जो कि सेतु।18। ये पुनीत ग्रंथ सब हैं महा महिम। सार्वभौमता के ये हैं प्रबल प्रमाण। हैं हमारी सभ्यता के सर्वोत्ताम चिन्ह। हैं हमारी दिव्यता के दिव्यतम प्राण।19। ये हैं वह अलौकिक प्रभामय मणि। जिस की प्रभा से हुआ जग प्रभावान। उन्हीं के किरण जाल से हो समुज्ज्वल। तिमिर रहित हुए तमोमय स्थान।20। ये हैं वह रमणीय, रंग-स्थल जहाँ। कर अभिनीत नव नव अभिनय। पूजनीय पूर्वतन अभिनेता गण। करते हैं मानवता पूरित हृदय।21। आत्मबल आत्म-त्याग आदि के आदर्श। देश-प्रेम जाति-प्रेम प्रभृति के भाव। परम कौशल साथ कर प्रदर्शन। डालते हैं चित पर अमित प्रभाव।22। दिखला सजीव दृश्य देश समुन्नति। सामाजिक संगठन जाति उन्नयन। सूखी हुई नसें बना बना सरुधिर। करते हैं उन्मीलित मीलित नयन।23। अत: आज कर-बध्द है यह विनय। बर्तमान कबि-कुल-चरण समीप। तिरोहित क्यों न किया जाय देश-तम। प्रज्वलित कर अति उज्ज्वल प्रदीप।24। प्राप्त क्यों न किया जाय बहुमूल्य रत्न। मंथन सदैव कर भव-पारावार। क्यों न किया जाय कल कुसुम चयन। प्राकृतिक नन्दन कानन में पधार।25। बात यह सत्य है कि सकल महर्षि। व्यास देव तथा पूज्य बालमीक पद। है बहुत गुरु, अति उच्च, पूततम। पद पद पर वह है विमुक्ति प्रद।26। किन्तु आप भी हैं उन्हीं के तो वंशधार। रुधिर उन्हीं का आप में है संचरित। उन्हीं का प्रभाव मय वैद्युतिक कण। भवदीय भाव मधय क्या नहीं भरित।27। भला फिर होगा कौन कार्य असंभव। कैसे न करेंगे फिर असाध्य साधन। करेंगे प्रवेश क्यों न भाव-राज्य मध्य। भक्ति साथ भारती का कर आराधान।28। कालिदास भवभूति आदि महा कवि। पदानुसरण कर जिनका सप्रेम। ख्यात हुए, कल्पतरु पग वह पूज। बांछित लहेंगे क्यों न, होगा क्यों न क्षेम।29। इसी पग-कल्पतरु-छाया में बिराज। गोस्वामी प्रवर ने हैं बीछे वह फूल। सौरभित जिससे है भारत-धारणि। जो है अति मानस-मधुर अनुकूल।30। फिर कैसे आप होंगे नहीं लब्धा काम। कैसे नहीं सिध्द प्राप्त होवेगी प्रचुर। यदि होगा लोक-राग-रंजित हृदय। यदि होगा जाति-प्रेम-सुधासिक्त उर।31। बसुधा ललाम भूता भारत अवनि। नवल आलोक से है आलोकित आज। समुन्नति का है जहाँ तहाँ कोलाहल। परम समाकुल है सकल समाज।32। किन्तु आज भी है अति संकुचित दृष्टि। यथोचित खुला नहीं आज भी नयन। कंटकित पथ आज भी है कंटकित। किन्तु करते हैं तो भी ख-पुष्प चयन।33। संघ शक्ति इस युग का है मुख्य धर्म। जाति-संगठन इस काल का है तंत्र। सर्वत्र एकीकरण का है घोर नाद। सहयोग आज काल का है महामंत्र।34। किन्तु हम आज भी हैं प्रतिकूल गति। आज भी विभिन्नता ही में हैं हम रत। बची खुची रही सही जो थी संघ शक्ति। छिन्न भिन्न हो रही है वह भी सतत।35। जातीय सभाएँ जाति जाति के समाज। नाना जातियों के भिन्न भिन्न पाठागार। जिस भाँति संचालित हो रहे हैं आज। सहकारिता का कर देवेंगे संहार।36। उनसे असहयोग पायेगा सुयोग। जाति संगठन पर होगा बज्रपात। जातीयता का रहेगा कैसे वहाँ पक्ष। जहाँ पर प्रति दिन होगा पक्षपात।37। देवालय विद्यालय सभा औ समाज। जाति सम्मिलन के हैं सर्वमान्य केन्द्र। यदि नहीं एही रहे अवरित द्वार। कर न सकेंगे एकीकरण सुरेन्द्र।38। गुथे हुए एक सूत्र में हैं जो कुसुम। उन्हें छिन्न भिन्न कर एकाधिक बार। दुस्तर है, बरंच है विडम्बना मात्र। फिर बना लेना वैसा सुसज्जित हार।39। किन्तु तम में हैं वे ही जो हैं ज्योतिर्मान। नेत्र जिन के हैं खुले उन्हीं के हैं बन्द। कैसे दिखलावें हम व्यथित हृदय। आह! है बड़ा ही मर्म बेधी यह द्वन्द्व।40। प्रति दिन हिन्दू जाति का है होता ह्रास। संख्या है हमारी दिन दिन होती न्यून। च्युत हो रहे हैं निज बर वृन्त त्याग। अचानक कतिपय कलित प्रसून।41। धर्म पिपासा से हो हो बहु पिपासित। बैदिक पुनीत पथ सका कौन त्याग। प्रवाहित शान्ति-धारा सकेगा न कर। भगवती भागीरथी-सलिल बिराग।42। सामाजिक कतिपय कुत्सित नियम। अति संकुचित छूतछात के बिचार। हर ले रहे हैं आज हमारा सर्वस्व। गले का भी आज छीन ले रहे हैं हार।43। एक ओर काम-ज्वाला में है होता हुत। विपुल विभव तनमन मणि माल। अन्य ओर हो हो पेट-ज्वाला से बिबश। लूटे जा रहे हैं मेरे बहु मूल्य लाल।44। जिन्हें हम छूते नहीं समझ अछूत। जो हैं माने गये सदा परम पतित। पास उनके है होता क्या नहीं हृदय। वेदनाओं से वे होते क्या नहीं व्यथित।45। उनका कलेजा क्या है पाहन गठित। मांस ही के द्वारा वह क्या है नहीं बना। लांछित ताड़ित तथा हो हो निपीड़ित। उनके नयन से है क्या न ऑंसू छना।46। कब तक रहें दुख-सिंधु में पतित। कब तक करें पग-धूलि वे बहन। कब तक सहें वह साँसतें सकल। कर न सकेगा जिसे पाहन सहन।47। हमारे ही अविवेक का है यह फल। हमारी कुमति का है यह परिणाम। हमें छोड़ नित होती जाती है अलग। परम सहन शील संतति ललाम।48। किन्तु आज भी न हुआ हृदय द्रवित। आज भी न हुआ हमें हितहित ज्ञान। छोड़ कर भयावह संकुचित भाव। हम नहीं बना सके हृदय महान।49। हिन्दू जाति जरा से है आज जर्जरित। उसका है एक एक लोम व्यथा-मय। चित-प्रकम्पित-कर रोमांच कारक। उसके हैं एक नहीं अनेक विषय।50। सामने रखे जो गये विषय युगल। वे हैं निदर्शन मात्र; यदि कवि गण। इन पर देंगे नहीं समुचित दृष्टि। ग्रहण करेगी जाति किस की शरण।51। किन्तु क्या कर्तव्य किया गया है पालन। क्या सुनाया गया वह अद्भुत झंकार। जिस से हृदय-यंत्र होवे निनादित। बज उठें चित-वृत्ति वर वीणा-तार।52। जिस कवि किम्वा कवि पुंगव का चित। है न जाति दयनीय दशा चित्र पट। वह हो सरस होवे भूरि भाव मय। संजीवनी शक्ति प्रद है न सुधा-घट।53। काव्यता को कैसे प्राप्त होगा वह काव्य। जिस काव्य से न होवे जातीय उत्थान। वह कविता है कभी कविता ही नहीं। जिस कविता में हो न जातीयता-तान।54। जाति दुख लिखे जो न लेखनी ललक। तो कहूँगा रही, मुखलालिमा ही नहीं। वह लेवे बार बार भले ही किलक। कालिमामयी की गयी कालिमा ही नहीं।55। भावुकता प्रिय कैसे बनें तो भावुक। भाव जो न करे जाति-अभाव प्रगट। जाति-प्रेम कमनीय वंशी-धवनि बिना। होवेगा अकान्त कल्पना-कालिन्दी-तट।56। नवरस मर्म जाना तो न जाना कुछ। जान पाया जब नहीं जाति का ही मर्म। जाति को ही जो न सका कर्मरत कर। कवि-कर्म कैसे तब होगा कवि-कर्म।57। जिस सुललित कला-निलय की कला। विलोक रहे हैं सब थल सब काल। उसी सुविभूति मय के हैं सुविभूति। उसी मणिमाल के हैं आप लोग लाल।58। कविगण आप में है वह दिव्य ज्योति। हरण करेगी जो कि जाति का तिमिर। बरस सरस-सुधा करो जाति हित। फैलाओ दिगन्त कीर्ति परम रुचिर।59। टले विघ्न बाधा होवे मंगल सतत। सब फूलें फलें सब ही का होवे भला। सभासद सुखी रहें सभा का हो हित। भारत-अवनि होवे सुजला सुफला।60।

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