तू कहाँ है तुझ से इक निस्बत थी मेरी ज़ात को
तू कहाँ है तुझ से इक निस्बत थी मेरी ज़ात को कब से पलकों पर उठाए फिर रहा हूँ रात को मेरे हिस्से की ज़मीं बंजर थी में वाक़िफ़ न था बे-सबब इल्ज़ाम मैं देता रहा बरसात को कैसी बस्ती थी जहाँ पर कोई भी ऐसा न था मुन्कशिफ़ मैं जिस पे करता अपने दिल की बात को सारी दुनिया के मसाइल यूँ मुझे दरपेश हैं तेरा ग़म काफ़ी न हो जैसे गुज़र-औक़ात को

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