शदीद प्यास थी फिर भी छुआ न पानी को
शदीद प्यास थी फिर भी छुआ न पानी को मैं देखता रहा दरिया तिरी रवानी को सियाह रात ने बेहाल कर दिया मुझ को कि तूल दे नहीं पाया किसी कहानी को बजाए मेरे किसी और का तक़र्रुर हो क़ुबूल जो करे ख़्वाबों की पासबानी को अमाँ की जा मुझे ऐ शहर तू ने दी तो है भुला न पाऊँगा सहरा की बे-करानी को जो चाहता है कि इक़बाल हो सिवा तेरा तो सब में बाँट बराबर से शादमानी को

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