रात जुदाई की रात
कटती नहीं सर्द रात ढलती नहीं ज़र्द रात रात जुदाई की रात ख़ाली गिलासों की सम्त तकती हुई आँख में क़तरा-ए-शबनम नहीं कौन लहू में बहे मेरी रगों में चले तेज़ हो साँसों का शोर जलने लगे पोर पोर आए समुंदर में जोश गिर पड़े दीवार-ए-होश सूखी हुई शाख़ पर बर्ग ओ समर खिल उठीं आओ मिरी नींद की बिखरी हुई पत्तियाँ आज समेटो ज़रा कब से खुला है बदन इस को लपेटो ज़रा एक शिकन दो शिकन बिस्तर-ए-तन्हाई पर फिर से बढ़ा दो ज़रा मुझ को रुला दो ज़रा एक पहर रात है रात जुदाई की रात

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