नशात-ए-ग़म भी मिला रंज-ए-शाद-मानी भी
नशात-ए-ग़म भी मिला रंज-ए-शाद-मानी भी मगर वो लम्हे बहुत मुख़्तसर थे फ़ानी भी खुली है आँख कहाँ कौन मोड़ है यारो दयार-ए-ख़्वाब की बाक़ी नहीं निशानी भी रगों में रेत की इक और तह जमी देखो कि पहले जैसी नहीं ख़ून में रवानी भी भटक रहे हैं तआक़ुब में अब सराबों के मिला न जिन को समुंदर से बूँद पानी भी ज़मीं भी हम से बहुत दूर होती जाती है डरा रही है ख़लाओं की बे-करानी भी तवील होने लगी हैं इसी लिए रातें कि लोग सुनते सुनाते नहीं कहानी भी

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