ला-ज़वाल सुकूत
मुहीब लम्बे घने पेड़ों की हरी शाख़ें कभी कभी कोई अश्लोक गुनगुनाती थीं कभी कभी किसी पत्ते का दिल धड़कता था कभी कभी कोई कोंपल दरूद पढ़ती थी कभी कभी कोई जुगनू अलख जगाता था कभी कभी कोई ताइर हवा से लड़ता था कभी कभी कोई परछाईं चीख़ पड़ती थी और इस के ब'अद मिरी आँख खुल गई मैं ने सिरहाने रक्खे हुए ताज़ा रोज़-नामे की हर एक सत्र बड़े ग़ौर से पढ़ी लेकिन ख़बर कहीं भी किसी ऐसे हादसे की न थी और इस के ब'अद मैं दीवाना-वार हँसने लगा और इस के ब'अद हर इक सम्त ला-ज़वाल सुकूत और इस के ब'अद हर इक सम्त ला-ज़वाल सुकूत

Read Next