अभिनव कला
प्यार के साथ सुधाधाार पिलाने वाली। जी-कली भाव विविधा संग खिलाने वाली। नागरी-बेलि नवल सींच जिलाने वाली। नीरसों मधय सरसतादि मिलाने वाली। देख लो फिर उगी साहित्य-गगन कर उजला। अति कलित कान्तिमती चारु हरीचन्द कला।1। जो रहा मंजु मधुप, नागरी-कमल-पग का। जो रहा मत पथिक-प्रेम के रुचिर मग का। जो रहा बन्धु सदय भाव-सहित सब जग का। जो रहा रक्त गरम जाति की निबल रग का। थी जिसे बुध्दि मिली पूत रसिकतादि बलित। है उसी उक्ति-सरसि-कंज की यह कीर्ति कलित।2। देखिए आप इसे प्यार भरी आँखों से। दीजिए मान दिला आप इसे लाखों से। आप पावेंगे इसे मिष्ट अधिक दाखों से। आप देखेंगे दमकता इसे सित पाखों से। यह लसाएगी उरों बीच सुधा-पूरित सर। यह सुनाएगी स अनुराग अलौकिक पिक-स्वर।3। है जिसे सूझ मिली कान्ति मनोहर प्यारी। पा गया जो है बड़े पुण्य से प्रतिभा न्यारी। कैसा होता है कथन उसका मधुर रुचि-कारी। कितनी होती है खिली उसकी सुकविता-क्यारी। जानना चाहें अगर यह रहस्य पुलकित कर। तो पढ़ें आप इसे कंजकरों में लेकर।4। स्वर्ग-संगीत सरस आठ पहर है होता। इस में बहता है महामोद का सुन्दर सोता। बीज हितकारिता इसका है बर बरन बोता। ताप जीका है मधुर बोलना इसका खोता। चौगुनी चाप पुरन्दर से हुई जिसकी छटा। इस में दिखलाएगी वह मुग्धाकरी कान्त घटा।5। खींच देवेगी रुचिर चित्र यह दृगों आगे। आर्-गौरव का, अमर वृन्द जिसमें अनुरागे। छू जिसे कान्ति सने बादले बने धाागे। तेज से जिसके तिमिर देश देश के भागे। ज्योति वह जिसके विमल अंक से उफन निकली। कान्त कंदील जगत सभ्यता की जिससे बली।6। यह सुना जाति-व्यथा आप को जगा देगी। देश-हित-बीज हृदय-भूमि में उगा देगी। धर्म का मर् बता मूढ़ता भगा देगी। लोक-सेवा में बड़े प्यार से लगा देगी। यह मलिन बुध्दि परम पूत बना लेवेगी। बन्द होती हुई उर-आँख खोल देवेगी।7। कंटकों मध्य खिला फूल है चुना जाता। कीच के बीच पड़ा रत्न है उठा आता। बाहरी रूप जो इस का न भव्य दिखलाता। था उचित तो भी इसे यह प्रदेश अपनाता। किन्तु यह आज बदल रूप रंग आई है। मान अब भी न मिले तो बड़ी कचाई है।8। आज जो बंग-धारा बीच जन्म यह पाती। मरहठी गुर्जरी भाषा में जो लिखी जाती। मान पा हाथ में लाखों जनों के दिखलाती। बन गयी होती विबुधा वृन्द की प्यारी थाती। लोग कर ब्योत बड़े चाव से इसे लेते। बात ही में नहीं जी में इसे जगह देते।9। जो कहीं भूल गया नागरी परम नेही। प्रेम हिन्दी का न हो तो वृथा बने देही। त्याग स्वीकार करें या बने रहें गेही। जाति ममता है, जिन्हें धन्य हैं यहाँ वे ही। वर विभव, मान, विमल कीर्ति, वही पावेंगे। जाति-भाषा को ललक जो गले लगावेंगे।10।

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