कच्चे रस्तों से
जो कच्चे रस्तों से पक्की सड़कों का रुख़ किया था खड़ाऊँ अपनी उतार देते बदन को कपड़ों से ढाँप लेते तुम्हारी सैराब पिंडुलीयों पर निशान जितने हैं कह रहे हैं कि तुम ने रातों को रात समझा हर एक मौसम में उस की निस्बत से फल उगाए बदन ज़रूरत-ए-ग़िज़ा हमेशा तुम्हें मिली है न जाने उफ़्ताद क्या पड़ी है जो कच्चे रस्तों से पक्की सड़कों का रुख़ किया है

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