भाषा
जातियाँ जिससे बनीं, ऊँची हुई, फूली फलीं। अंक में जिसके बड़े ही गौरवों से हैं पलीं। रत्न हो करके रहीं जो रंग में उसके ढलीं। राज भूलीं, पर न सेवा से कभी जिसकी टलीं। ऐ हमारे बन्धुओ! जातीय भाषा है वही। है सुधा की धार बहु मरु-भूमि में जिससे बही।1। जो हुए निर्जीव हैं, उनको जिला देती है वह। गंग-धारा कर्मनाशा में मिला देती है वह। स्वच्छ पानी प्यास वाले को पिला देती है वह। जो कली कुम्हला गयी उसको खिला देती है वह। नीम में है दाख के गुच्छे वही देती लगा। ऊसरों में है रसालों को वही देती उगा।2। आन में जिनकी दिखाती देश-ममता है निरी। जो सपूतों की न उँगली देख सकते हैं चिरी। रह नहीं सकतीं सफलताएँ कभी जिनसे फिरी। वह नई पौधें उठी हैं जातियाँ जिनसे गिरी। थीं इसी जातीय भाषा के हिंडोले में पली। फूँक से जिनकी घटाएँ आपदाओं की टलीं।3। है कलह औ फूट का जिसमें फहरता फरहरा। दंभ-उल्लू-नाद जिसमें है बहुत देता डरा। मोह, आलस, मूढ़ता, जिसमें जमाती है परा। वह अंधेरा देश का बहु आपदाओं से भरा। दूर करता है इसी जातीय भाषा का बदन। भानु का सा है चमकता भाल का जिसके रतन।4। सूझती जिनको नहीं अपनी भलाई की गली। पड़ गयी है चित् में जिनके बड़ी ही खलबली। है अनाशा रंग में जिनकी सभी आशा ढली। जिन समाजों की जड़ें भी हो गयी हैं खोखली। ढंग से जातीय भाषा ही उन्हें आगे बढ़ा। है समुन्नति के शिखर पर सर्वदा देती चढ़ा।5। उस स्वकीय जाति-भाषा सर्वथा सुख-दानि की। स्वच्छ सरला सुन्दरी आधार-भूता आनि की। मा समा उपकारिका, प्रतिपालिका कुल-कानि की। उस निराली नागरी अति आगरी गुण खानि की। आपमें कितनी है ममता, दीजिए मुझ को बता। आज भी क्या प्यार उससे आप सकते हैं जता?।6। खोलकर आँखें निरखिए बंग-भाषी की छटा। मरहठी की देखिए, कैसी बनी ऊँची अटा। क्या लसी साहित्य-नभ में गुर्जरी की है घटा। आह! उर्दू का है कैसा चौतरा ऊँचा पटा। किन्तु हिन्दी के लिए ए बार अब भी दूर हैं। आज भी इसके लिए उपजे न सच्चे शूर हैं।7। फिर कहें क्या आप उससे प्यार सकते हैं जता। फिर कहें क्यों आपमें है उसकी ममता का पता। फिर कहें क्यों है लुभाती नागरी हित-तरुलता। किन्तु प्यारे बन्धुओ! देता हूँ, मैं सच्ची बता। दृष्टि उससे दैव की चिरकाल रहती है फिरी। जिस अभागी जाति की जातीय भाषा है गिरी।8। क्यों चमकते मिलते हैं बंगाल में मानव-रतन। किस लिए हैं बम्बई में देवतों से दिव्य जन। क्यों मुसलमानों की है जातीयता इतनी गहन। क्यों जहाँ जाते हैं वे पाते हैं आदर, मान धान। और कोई हेतु इसका है नहीं ऐ बन्धु-गान। ठीक है, जातीय-भाषा से हुई उनकी गठन।9। आँख उठाकर देखिए इस प्रान्त की बिगड़ी दशा। है जहाँ पर यूथ हिन्दी-भाषियों का ही बसा। आज भी जो है बड़ों के कीर्ति-चिन्हों से लसा। सूर, तुलसी के जनम से पूत है जिसकी रसा। सिध्द, विद्या-पीठ, गौरव-खानि, विबुधों से भरी। आज भी है अंक में जिसके लसी काशीपुरी।10। अल्प भी जो है खिंचा जातीय भाषा ओर चित। तो दशा को देखकर के आप होवेंगे व्यथित। नागरी-अनुरागियों की न्यूनता अवलोक नित। चित ऊबेगा, दृगों से बारि भी होगा पतित। आह! जाती हैं नहीं इस प्रान्त की बातें कही। नित्य हिन्दी को दबा उर्दू सबल है हो रही।11। यह कथन सुन कह उठेंगे आप तुम कहते हो क्या। पर कहूँगा मैं कि मैंने जो कहा वह सच कहा। जाँच इसकी जो करेंगे आप गाँवों-बीच जा। तो दिखायेगा वहाँ पर आपको ऐसा समा। हिन्दुओं के लाल प्रतिदिन हाथ सुबिधा का गहे। मूल अपनापन को उर्दू ओर ही हैं जा रहे।12। जो उठाकर हाथ में दस साल पहले का गजट। देख लेंगे और तो होगी अधिक जी की कचट। मिड्ल हिन्दी पास का था जो लगा उस काल ठट। वह गया है एक चौथे से अधिक इस काल घट। बढ़ रही है नित्य यों उर्दू छबीली की कला। घोंटते हैं हाथ अपने हाय! हम अपना गला।13। बन-फलों को प्यार से खा छालके कपड़े पहन। राज भोगों पर नहीं जो डालते थे निज नयन। फूल सा बिकसा हुआ लख जाति-भाषा का बदन। जो सदा थे वारते सानंद अपना प्राण, धान। उन द्विजों की हाय! कुछ संतान ने भी कह बजा। नागरी को पूच उर्दू पेच में पड़ कर तजा।14। हिन्द, हिन्दू और हिन्दी-कष्ट से होके अथिर। खौल उठता था अहो जिनके शरीरों का रुधिर। जो हथेली पर लिये फिरते थे उनके हेतु शिर। थे उन्हीं के वास्ते जो राज तज देते रुचिर। बहु कुँवर उन क्षत्रियों के तुच्छ भोगों से डिगे। नागरी को छोड़ उर्दू रंगतों में ही रँगे।15। हो जहाँ पर शिर-धारों का आज दिन यों शिर फिरा। फिर वहाँ पर क्यों फड़क सकती है औरों की शिरा। किन्तु क्यों है नागरी के पास इतना तम घिरा। आँख से कुछ हिन्दुओं के क्यों है उसका पद गिरा। आप सोचेंगे अगर इसको तनिक भी जी लगा। तो समझ जाएँगे है अज्ञानता ने की दगा।16। आज दिन भी गाँव गाँवों में अँधेरा है भरा। है वहाँ नहिं आज दिन भी ज्ञान का दीपक बरा। आज दिन भी मूढ़ता का है जमा वाँ पर परा। जाति-हित के रंग से कोरी वहाँ की है धारा। हाथ का पारस भला वह फेंक देगा क्यों नहीं। आह! उसके दिव्य गुण को जानता है जो नहीं।17। है नगर के वासियों में ज्ञान का अंकुर उगा। जाति-हित में किन्तु वैसा जी नहीं अब भी लगा। फूँक से वह आपदा है सैकड़ों देता भगा। जाति-भाषा रंग में नर-रत्न जो सच्चा रँगा। उस बदन की ज्योति देती है तिमिर सारा नसा। जाति के अनुराग का न्यारा तिलक जिस पर लसा।18। नागरी के नेह से हम लोग आये हैं यहाँ। किन्तु सच्चा त्याग हम में आज दिन भी है कहाँ। जाति-सेवा के लिए हैं जन्मते त्यागी जहाँ। आपदाएँ ढूँढ़ने पर भी नहीं मिलतीं वहाँ। जाति-भाषा के लिए किस सिध्द की धूनी जगी। वे कहाँ हैं जिनके जी को चोट है सच्ची लगी।19। निज धरम के रंग में डूबे, तजे निज बंधु-जन। हैं यहाँ आते चले यूरोप के सच्चे रतन। किसलिए? इस हेतु, जिस में वे करें तम का निधान। दीन दुखियों का हरें, दुख औ उन्हें देवें सरन। देखिए उनको यहाँ आ करके क्या करते हैं वे। एक हम हैं आँख से जिसकी न आँसू भी वे।20। जो अंधेरे में पड़ा है ज्योति में लाना उसे। जो भटकता फिर रहा है, पंथ दिखलाना उसे। फँस गया जो रोग में है, पथ्य बतलाना उसे। सीखता ही जो नहीं, कर प्यार सिखलाना उसे। काम है उनका, जिन्हें पा पूत होती है मही। इस विषम संसार-पादप के सुधा फल हैं वही।21। आज का दिन है बड़ा ही दिव्य हित-रत्नों जड़ा। जो यहाँ इतने स्वभाषा-प्रेमियों का पग पड़ा। किन्तु होवेगा दिवस वह और भी सुन्दर बड़ा। लाल कोई बीर लौं जिस दिन कि होवेगा खड़ा। दूर करने के लिए निज नागरी की कालिमा। औ लसाने के जिए उन्नति-गगन में लालिमा।22। राज महलों से गिनेगा झोंपड़ी को वह न कम। वह फिरेगा उन थलों में है जहाँ पर घोर तम। जो समझते यह नहीं, है काल क्या? हैं कौन हम? वह बता देगा उन्हें जातीय-उन्नति के नियम। वह बना देगा बिगड़ती आँख को अंजन लगा। जाति-भाषा के लिए वह जाति को देगा जगा।23। वह नहीं कपड़ा रँगेगा किन्तु उर होगा रँगा। घर न छोड़ेगा, रहेगा पर नहीं उसमें पगा। काम में निज वह परम अनुराग से होगा लगा। प्यार होगा सब किसी से और होगा सब सगा। बात में होगी सुधा उसका रहेगा पूत मन। जाति-भाषा-तेज से होगा दमकता बर बदन।24। दूर होवेगा उसी से गाँव गाँवों का तिमिर। खुल पड़ेगी हिन्दुओं की बंद होती आँख फिर। तम-भरे उर में जगेगी ज्योति भी अति ही रुचिर। वह सुनेगी बात सब, जो जाति है कब की बधिर। दूर होगी नागरी के शीश की सारी बला। चौगुनी चमकेगी उसकी चारुता-मंडित कला।25। दैनिकों के वास्ते हैं आज दिन लाले पड़े। सैकड़ों दैनिक लिये तब लोग होवेंगे खड़े। केतु होंगे आगरी की कीर्ति के सुन्दर बड़े। जगमगाएँगे विभूषण अंग में रत्नों जड़े। देश-भाषा-रूप से वह जायगी उस दिन बरी। सब सगी बहनें बनाएँगी उसे निज सिर-धारी।26। मैं नहीं सकटेरियन हूँ औ नहीं हूँ बावला। बात गढ़कर मैं किसी को चाहती हूँ कब छला। मैं न हूँ उरदू-विरोधी, मैं न हूँ उससे जला। कौन हिन्दू चाहता है घोंटना उसका गला। निज पड़ोसी का बुरा कर कौन है फूला फला। हैं इसी से चाहते हम आज भी उसका भला।27। किन्तु रह सकता नहीं यह बात बतलाये बिना। ज्यों न जीएगा कभी जापान जापानी बिना। ज्यों न जीएगा मुसल्माँ पारसी, अरबी बिना। जी सकोगे हिन्दुओ, त्योंही न तुम हिन्दी बिना। देखकर उरदू-कुतुब यह दीजिए मुझको बता। आपकी जातीयता का है कहीं उसमें पता?।28। क्या गुलाबों पर करेंगे आप कमलों को निसार। क्या करेंगे कोकिलों को छोड़कर बुलबुल को प्यार। क्या रसालों को सरो शमशाद पर देवेंगे वार। क्या लखेंगे हिन्द में ईरान का मौसिम बहार। क्या हिरासे और दजला आदि से होगी तरी। तज हिमालय सा सुगिरिवर पूत-सलिला सुरसरी।29। भीम, अर्जुन की जगह पर गेव रुस्तम को बिठा। सभ्य लोगों में नहीं दृग आप सकते हैं उठा। साथ कैकाऊस-दारा-प्रेम की गाँठें गठा। क्या भला होगा, रसातल भोज, विक्रम को पटा। कर्ण की ऊँची जगह जो हाथ हातिम के चढ़ी। तो समझिए, ढह पड़ेगी आप की गौरव-गढ़ी।30। क्या हसन की मसनवी से आप होकर मुग्धा मन। फेंक देंगे हाथ से वह दिव्य रामायन रतन। क्या हटाकर सूर-तुलसी-मुख-सरोरुह से नयन। आप अवलोकन करेंगे मीर गशलिब का बदन। क्या सुधा को छोड़कर जो है मयंक-मुखों-सवी। आप सहबा पान करके हो सकेंगे गौरवी।31। जो नहीं, तो देखिए जातीय भाषा का बदन। पोंछिए, उस पर लगे हैं जो बहुत से धूलिकन। जी लगाकर कीजिए उसकी भलाई का जतन। पूजिए उसका चरण उस पर चढ़ा न्यारे रतन। जगमगा जाएगी उसकी ज्योति से भारत-धारा। आपका उद्यान-यश होगा फला फूला हरा।32। भाग्य से ही राज उस सरकार का है आज दिन। जो उचित आशा किसी की है नहीं करती मलिन। शान्त की जिसने यहाँ आकर अराजकता अगिन। उँगलियों पर जिसके सब उपकार हैं सकते न गिन। जो न ऐसा राज पाकर आप सोते से जगे। तो कहें क्यों जाति-भाषा रंगतों में हैं रँगे।33। हे प्रभो! हिन्दू-हृदय में ज्ञान का अंकुर उगे। हिन्द में बनकर रहें, सब काल वे सबके सगे। दूसरों को हानि पहुँचाये बिना औ बिन ठगे। दूर हों सब विघ्न, बाधा, भाग हिन्दी का जगे। जाति भाषा के लिए जो राज-सुख को रज गिने। बुध्द-शंकर-भूमि कोई लाल फिर ऐसा जने।34।

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