कब समाँ देखेंगे हम ज़ख़्मों के भर जाने का
कब समाँ देखेंगे हम ज़ख़्मों के भर जाने का नाम लेता ही नहीं वक़्त गुज़र जाने का जाने वो कौन है जो दामन-ए-दिल खींचता है जब कभी हम ने इरादा किया मर जाने का दस्त-बरदार अभी तेरी तलब से हो जाएँ कोई रस्ता भी तो हो लौट के घर जाने का लाता हम तक भी कोई नींद से बोझल रातें आता हम को भी मज़ा ख़्वाब में डर जाने का सोचते ही रहे पूछेंगे तिरी आँखों से किस से सीखा है हुनर दिल में उतर जाने का

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