सेवा
देख पड़ी अनुराग-राग-रंजित रवितन में। छबि पाई भर विपुल-विभा नीलाभ-गगन में। बर-आभा कर दान ककुभ को दुति से दमकी। अन्तरिक्ष को चारु ज्योतिमयता दे चमकी। कर संक्रान्ति गिरि-सानु-सकल को कान्त दिखाई। शोभितकर तरुशिखा निराली-शोभा पाई। कलित बना कर कनक कलश को हुई कलित-तर। समधिक-धवलित सौधा-धाम कर बनी मनोहर। लता बेलि को परम-ललित कर लही लुनाई। कुसुमावलि को विकच बना विकसित दिखलाई। ज्वलित हुई कर सरित-सरोवर-सलिल समुज्ज्वल। उठी जगमगा परम-प्रभामय कर अवनीतल। निज सेवा फल से ही हुई प्रात की किरण प्रति फलित। विकसित सरसित सफलित लसित सम्मानित आभा बलित।

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