गौरव गान
वैदिकता-विधि-पूत-वेदिका बन्दनीय-बलि। वेद-विकच-अरविन्द मंत्र-मकरन्द मत-अलि। आर्य-भाव कमनीय-रत्न के अनुपम-आकर। विविध-अंध-विश्वास तिमिर के विदित-विभाकर। नाना-विरोध-वारिद-पवन कदाचार-कानन-दहन। हैं निरानन्द तरु-वृन्द के दयानन्द-आनन्द-घन।1। वैदिक-धर्म न है प्रदीप जो दीप्ति गँवावे। तर्क-वितर्क-विवाद-वायु बह जिसे बुझावे। मलिन-विचार-कलंक-कलंकित है न कलाधर। प्रभाहीन कर सके जिसे उपधार्म प्रभाकर। वह है दिवि-दुर्लभ दिव्यमणि दुरित-तिमिर है खो रहा। उसके द्वारा भू-वलय है विपुल-विभूषित हो रहा।2। पंचभूत से अधिक भूतियुत है विभु-सत्ता। प्रभु प्रभाव से है प्रभाव मय पत्ता पत्ता। है त्रिलोक में कला अलौकिक-कला दिखाती। सकल ज्ञान विज्ञान विभव है भव की थाती। उन पर समान संसार के मानव का अधिकार है। महि-धर्म-नियामक-वेद का यह महनीय-विचार है।3। बिना मुहम्मद औ मसीह मूसा के माने। मनुज न होगा मुक्त मनुजता महिमा जाने। उनके पथ के पथिक यह विपथ चल हैं कहते। रंग रंग से बाद तरंगों में है बहते। पर यह वैदिक सिध्दान्त है उच्च-हिमाचल सा अचल। मानव पा सकता मुक्ति है बने आत्मबल से सबल।4। सत्य सत्य है, और सत्य सब काल रहेगा। न्याय-सिंधु का न्यास-वारि कर न्याय बहेगा। वहाँ जहाँ, हैं विमल विवेक विमलता पाते। होगा मानव मान एक मानवता नाते। है जगतपिता सबका पिता वेद बताते हैं यही। प्रभु प्रभु-जन प्यारे हैं जिन्हें प्रभु के प्यारे हैं वही।5। हो वैदिक ए वेदतत्तव हम को थे भूले। मूल त्याग हम रहें फूल फल दल ले फूले। धूम धाम से रहे पेट के करते धंधो। युक्ति-भार से रहे उक्ति के छिलते कंधो। थे बसे देश में पर न थे देश देश को जानते। हम मनमानी बातें रहे मनमाना कर मानते।6। कर कर बाल विवाह अबल बन थे बल खोते। दुखी थे न विधावों को विधावापन से होते। समझ लूट का माल लूटते थे ईसाई। मुसलमान की मुसलमानियत थी रँग लाई। हम दिन दिन थे तन-बिन रहे तन को गिनते थेनतन। निपतन गति थी दूनी हुई पल पल होता था पतन।7। भूल में पड़े, भूल को, समझ भूल न पाते। देख देख कर दुखी-जाति-दुख देख न पाते। कर्म भूमि पर था न कर्म का बहता सोता। धर्म धर्म कह धर्म-मर्म था ज्ञात न होता। उस काल अलौकिक लोक ने हमें अलौकिक बल दिया आ दयानन्द-आलोक ने आलोकित भूतल किया।8। पिला उन्होंने दिया आत्मगौरव का प्याला। बना उन्होंने दिया मान ममता मतवाला। जी में भर जातीय भाव कर सजग जगाया। देश प्रेम के महामन्त्र से मुग्ध बनाया। बतलाया ऐ ऋषि वंशधार है तुम में वह अतुल बल। जो सकल सफलता दान कर करे विफल जीवन सफल।9। वह नवयुग का जनक विविध सुविधान विधाता। बात बात में यही बात कहता बतलाता। जो है जीवन चाह सजीवन तो बन जाओ। नाना रुज से ग्रसित जाति को निरुज बनाओ। वे एक सूत्र में हैं बँधो जिन्हें बाँधते बेद हैं। वे भेद भेद समझे नहीं जो मानते विभेद हैं।10। प्रतिदिन हिन्दू जाति पतन गति है अधिकाती। नित लुटते हैं लाल छिनी ललना है जाती। है दृग के सामने आँख की पुतली कढ़ती। होती है ला बला बला-पुतलों की बढ़ती। मन्दिर हैं मिलते धूल में देवमूर्ति है टूटती। अपनी छाती भारत-जननि कलप कलप है कूटती।11। जाग जाग कर आज भी नहीं हिन्दू जागे। भाग भाग कर भय भयावने भूत न भागे। लाल लाल आँखें निकाल है काल डराता। है नाना जंजाल जाल पर जाल बिछाता। है निर्बलता टाले नहीं निर्बल तन मन की टली। खुल खुल आँखें खुलती नहीं, नहीं बात खलती खली।12। है अनेकता प्यार एकता नहीं लुभाती। है अनहित से प्रीति बात हित की नहिं भाती। रंग रहा है बिगड़ बदल हैं रंग न पाते। है न रसा में ठौर रसातल को हैं जाते। हैं अन्धकार में ही पड़े अंधापन जाता नहीं। है लहू जाति का हो रहा लहू खौल पाता नहीं।13। क्या महिमामय वेद-मंत्र में है न महत्ता। राम नाम में रही नाम को ही क्या सत्ता। क्या धाँस गयी धारातल में सुरधुनि की धारा। आर्य जाति को क्या न आर्य गौरव है प्यारा। क्या सकल अवैदिक नीतियाँ वैदिकता से हैं बली। क्या नहीं भूतहित भूति है भारत भूतल की भली।14। सोचो सँभलो मत भूलो घर देखो भालो। सबल बनो बल करो सब बला सिर की टालो। दिखला दो है जगत विजयिनी विजय हमारी। रग रग में है रुधिार उरग-गति-गर्व प्रहारी। वर कर वैदिक विरदावली वरद वेद पथ पर चलो। सबको दो फलने फूलने और आप फूलो फलो।15।

Read Next