इंतिज़ार
रात भर दीदा-ए-नमनाक में लहराते रहे साँस की तरह से आप आते रहे जाते रहे ख़ुश थे हम अपनी तमन्नाओं का ख़्वाब आएगा अपना अरमान बर-अफ़गन्दा-नक़ाब आएगा नज़रें नीची किए शरमाए हुए आएगा काकुलें चेहरे पे बिखराए हुए आएगा आ गई थी दिल-ए-मुज़्तर में शकेबाई सी बज रही थी मिरे ग़म-ख़ाने में शहनाई सी पतियाँ खड़कीं तो समझा कि लो आप आ ही गए सज्दे मसरूर कि माबूद को हम पा ही गए शब के जागे हुए तारों को भी नींद आने लगी आप के आने की इक आस थी अब जाने लगी सुब्ह ने सेज से उठते हुए ली अंगड़ाई ओ सबा! तू भी जो आई तो अकेली आई मेरे महबूब मिरी नींद उड़ाने वाले मेरे मस्जूद मिरी रूह पे छाने वाले आ भी जा, ताकि मिरे सज्दों का अरमाँ निकले आ भी जा, ताकि तिरे क़दमों पे मिरी जाँ निकले

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