इंक़लाब
ऐ जान-ए-नग़्मा जहाँ सोगवार कब से है तिरे लिए ये ज़मीं बे-क़रार कब से है हुजूम-ए-शौक़ सर-ए-रहगुज़ार कब से है गुज़र भी जा कि तिरा इंतिज़ार कब से है न ताबनाकी-ए-रुख़ है न काकुलों का हुजूम है ज़र्रा ज़र्रा परेशाँ कली कली मग़्मूम है कुल जहाँ मुतअफ़्फ़िन हवाएँ सब मस्मूम गुज़र भी जा कि तिरा इंतिज़ार कब से है रुख़-ए-हयात पे काकुल की बरहमी ही नहीं निगार-ए-दहर में अंदाज़-ए-मरयामी ही नहीं मसीह ओ ख़िज़्र की कहने को कुछ कमी ही नहीं गुज़र भी जा कि तिरा इंतिज़ार कब से है हयात-बख़्श तराने असीर हैं कब से गुलू-ए-ज़ेहरा में पैवस्त तीर हैं कब से है क़फ़स में बंद तिरे हम-सफ़ीर हैं कब से गुज़र भी जा कि तिरा इंतिज़ार कब से है हरम के दोश पे उक़्बा का दाम है अब तक सरों में दीन का सौदा-ए-ख़ाम है अब तक तवहहुमात का आदम ग़ुलाम है अब तक गुज़र भी जा कि तिरा इंतिज़ार कब से है अभी दिमाग़ पे क़हबा-ए-सीम-ओ-ज़र है सवार अभी रुकी ही नहीं तेशा-ज़न के ख़ून की धार शमीम-ए-अदल से महकें ये कूचा ओ बाज़ार गुज़र भी जा कि तिरा इंतिज़ार कब से है

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