विद्यालय
है विद्यालय वही जो परम मंगलमय हो। बरविचार आकलित अलौकिक कीर्ति निलय हो। भावुकता बर वदन सुविकसित जिससे होवे। जिसकी शुचिता प्रीति वेलि प्रति उर में बोवे। पर अतुलित बल जिससे बने जाति बुध्दि अति बलवती। बहु लोकोत्तर फल लाभ कर हो भारत भुवि फलवती।1। होगा भवहित मूल भूत उस विद्यालय का। गिरा देवि के बन्दनीयतम देवालय का। उसमें होगी जाति संगठन की शुभ पूजा। होवेगा सहयोग मंत्र स्वर उस में गूँजा। कटुता विरोध संकीर्णता कलह कुटिलता कुरुचि मल। कर दूरित उस में बहेगी पूत नीति धारा प्रबल।2। शुभ आशाएँ वहाँ समर्थित रंजित होंगी। कलित कामनाएँ अनुमोदित व्यंजित होंगी। वहाँ सरस जातीय तान रस बरसावेगी। देश प्रीति की उमग राग रुचिकर गावेगी। पूरित होगा गरिमा सहित वर व्यवहार सुवाद्य स्वर। उसमें वीणा सहकारिता बजकर देगी मुग्धा कर।3। जिसमें कलह विवाद वाद आमंत्रित होवे। द्वेष जहाँ पर बीज भिन्नताओं का बोवे। जहाँ सकल संकीर्ण भाव की होवे पूजा। आकुल रहे विवेक जहाँ बन करके लूँजा। उस विद्यालय के मधय है कहाँ प्रथित महनीयता। होती विलोप जिसमें रहे रही सही जातीयता।4। प्राय: है यह बात आज श्रुति गोचर होती। नाश बीज जातीय सभाएँ हैं अब बोती। प्रतिदिन उनसे संघ शक्ति है कुचली जाती। उनसे प्रश्रय है बिभिन्नता ही नित पाती। अब अध:पात है हो रहा उनके द्वारा जाति का। वे चाह रही हैं शान्ति फल पादप रोप अशान्ति का।5। अपना अपना राग व अपनी अपनी डफली। बहुत गा बजा चुके पर न अब भी सुधि सँभली। ढाई चावल की खिचड़ी हम अलग पकाकर। दिन दिन हैं मिट रहे समय की ठोकर खाकर। एकता और निजता बिना काम चला है कब कहीं। वह जाति न जीती रह सकी जिस में जीवन ही नहीं।6। जाति जाति की सभा जातियों के विद्यालय। अति निन्दित हैं संघ शक्ति जो करें न संचय। उन विद्यालय और सभाओं से क्या होगा। डूब जाय जिससे हिन्दू गौरव का डोंगा। जो काम न आई जाति के वह कैसी हितकारिता। वह संस्था संस्था ही नहीं जहाँ न हो सहकारिता।7। जिसमें केन्द्रीकरण नहीं वह सभा नहीं है। जो न तिमिर हर सके प्रभा वह प्रभा नहीं है। उस विद्यालय को विद्यालय कैसे मानें। जहाँ फूट औ कलह सुनावें अपनी तानें। मिल जाय धूल में वह सकल स्वार्थनिकेतन स्वकीयता। जिससे वंचित विचलित दलित हो हिन्दू जातीयता।8। यह विचार औ समय-दशा पर डाल निगाहें। उन उदार सुजनों को कैसे नहीं सराहें। जिन लोगों ने सकल जाति को गले लगाया। विद्यालय को सदा अवरित द्वार बनाया। सब काल भाव ऐसे कलित ललित उदय होते रहे। सब लोग मलिनता उरों की अमलिन बन धोते रहें।9। प्रभो देश में जितने हिन्दू विद्यालय हों। एक सूत्र में बँधो एकता-निजता मय हों। छात्र-वृन्द जातीय भाव से पूरित होवें। आत्म त्यागरत रहे जाति हित सरबस खोवें। ब्राह्मण छत्रिय वैश्य औ शुद्र भिन्नता तज मिलें। बढ़े परस्पर प्यार औ कुम्हलाये मानस खिलें।10।

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