ज़माने वालो
नज़र जहाँ तक भी जा सकी है सिवा अँधेरे के कुछ नहीं है । तुम्हारी घड़ियाँ ग़लत हैं शायद, बजर सुबह का बजाने वालो ! मैं उस जगह की तलाश में हूँ जहाँ न पंडित ना मौलवी हों मुझे गरज क्या हो दैरो-ओ काबा या मयकदा पथ बताने वालो ! तुम अपना सारा गुरुरे दौलत तराजू के उस सिरे पे रख लो इधर मैं रखता हूँ इस क़लम को समझते क्या हो खजाने वालो ! न जाने कितने समुद्र-मंथन का विष पिया है ख़ुशी से हमने हमारी बोली में जो असर है यूँ ही नहीं है ज़माने वालो ! जहाँ में इन आँसुओं की कीमत बहुत हुई तो दो बूँद पानी कला की दुनिया की ये सजावट हैं गीले मोती लुटाने वालो ! नहीं हैं हम कोई मुर्दा दर्पण जो देखकर भी न देखे कुछ भी हमारी आँखों में ज़िंदगी है संभल के जलवा दिखाने वालो !

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