शारदे!
संपदा त्रिलोक की न अब चाहिये मुझे, सपूत कह के प्यार से पुकार दे ओ शारदे । रोम-रोम मातृ-ऋण भार से विनत-नत, शुभ्र उत्तरीय से दुलार दे ओ शारदे । चेतना सदा ही रहे तेरी साधना की मातु भावना दे, ज्ञान दे, विचार दे ओ शारदे । मोरपंख वाली लेखनी का कर शीश धर, तार-तार वीणा झनकार दे ओ शारदे ।

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