विदा
अपने काले अवगुंठन को रजनी आज हटाना मत। जला चुकी हो नभ में जो ये दीपक इन्हें बुझाना मत॥ सजनि! विश्व में आज तना रहने देना यह तिमिर वितान। ऊषा के उज्ज्वल अंचल में आज न छिपना अरी सुजान॥ सखि! प्रभात की लाली में छिन जाएगी मेरी लाली। इसीलिए कस कर लपेट लो, तुम अपनी चादर काली॥ किसी तरह भी रोको, रोको, सखि! मुझ निधनी के धन को। आह! रो रहा रोम-रोम फिर कैसे समझाऊँ मन को॥ आओ आज विकलते! जग की पीड़ाएं न्यारी-न्यारी। मेरे आकुल प्राण जला दो, आओ तुम बारी-बारी॥ ज्योति नष्ट कर दो नैनों की, लख न सकूँ उनका जाना। फिर मेरे निष्ठुर से कहना, कर लें वे भी मनमाना॥

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