समर्पण
सूखी सी अधखिली कली है परिमल नहीं, पराग नहीं। किंतु कुटिल भौंरों के चुंबन का है इन पर दाग नहीं॥ तेरी अतुल कृपा का बदला नहीं चुकाने आई हूँ। केवल पूजा में ये कलियाँ भक्ति-भाव से लाई हूँ॥ प्रणय-जल्पना चिन्त्य-कल्पना मधुर वासनाएं प्यारी। मृदु-अभिलाषा, विजयी आशा सजा रहीं थीं फुलवारी॥ किंतु गर्व का झोंका आया यदपि गर्व वह था तेरा। उजड़ गई फुलवारी सारी बिगड़ गया सब कुछ मेरा॥ बची हुई स्मृति की ये कलियाँ मैं समेट कर लाई हूँ। तुझे सुझाने, तुझे रिझाने तुझे मनाने आई हूँ॥ प्रेम-भाव से हो अथवा हो दया-भाव से ही स्वीकार। ठुकराना मत, इसे जानकर मेरा छोटा सा उपहार॥

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