ये वृक्षों में उगे परिन्दे
ये वृक्षों में उगे परिन्दे पंखुड़ि-पंखुड़ि पंख लिये अग जग में अपनी सुगन्धित का दूर-पास विस्तार किये। झाँक रहे हैं नभ में किसको फिर अनगिनती पाँखों से जो न झाँक पाया संसृति-पथ कोटि-कोटि निज आँखों से। श्याम धरा, हरि पीली डाली हरी मूठ कस डाली कली-कली बेचैन हो गई झाँक उठी क्या लाली! आकर्षण को छोड़ उठे ये नभ के हरे प्रवासी सूर्य-किरण सहलाने दौड़ी हवा हो गई दासी। बाँध दिये ये मुकुट कली मिस कहा-धन्य हो यात्री! धन्य डाल नत गात्री। पर होनी सुनती थी चुप-चुप विधि -विधान का लेखा! उसका ही था फूल हरी थी, उसी भूमि की रेखा। धूल-धूल हो गया फूल गिर गये इरादे भू पर युद्ध समाप्त, प्रकृति के ये गिर आये प्यादे भू पर। हो कल्याण गगन पर- मन पर हो, मधुवाही गन्ध हरी-हरी ऊँचे उठने की बढ़ती रहे सुगन्ध! पर ज़मीन पर पैर रहेंगे प्राप्ति रहेगी भू पर ऊपर होगी कीर्ति-कलापिनि मूर्त्ति रहेगी भू पर।।

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