ताजमहल की छाया में
मुझ में यह सामर्थ्य नहीं है मैं कविता कर पाऊँ, या कूँची में रंगों ही का स्वर्ण-वितान बनाऊँ । साधन इतने नहीं कि पत्थर के प्रासाद खड़े कर- तेरा, अपना और प्यार का नाम अमर कर जाऊँ। पर वह क्या कम कवि है जो कविता में तन्मय होवे या रंगों की रंगीनी में कटु जग-जीवन खोवे ? हो अत्यन्त निमग्न, एकरस, प्रणय देख औरों का- औरों के ही चरण-चिह्न पावन आँसू से धोवे? हम-तुम आज खड़े हैं जो कन्धे से कन्धा मिलाये, देख रहे हैं दीर्घ युगों से अथक पाँव फैलाये व्याकुल आत्म-निवेदन-सा यह दिव्य कल्पना-पक्षी: क्यों न हमारा ह्र्दय आज गौरव से उमड़ा आये! मैं निर्धन हूँ,साधनहीन ; न तुम ही हो महारानी, पर साधन क्या? व्यक्ति साधना ही से होता दानी! जिस क्षण हम यह देख सामनें स्मारक अमर प्रणय का प्लावित हुए, वही क्षण तो है अपनी अमर कहानी !

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