जीवन, यह मौलिक महमानी
जीवन, यह मौलिक महमानी! खट्टा, मीठा, कटुक, केसला कितने रस, कैसी गुण-खानी हर अनुभूति अतृप्ति-दान में बन जाती है आँधी-पानी कितना दे देते हो दानी जीवन की बैठक में, कितने भरे इरादे दायें-बायें तानें रुकती नहीं भले ही मिन्नत करें कि सौहे खायें! रागों पर चढ़ता है पानी।। जीवन, यह मौलिक महमानी।। ऊब उठें श्रम करते-करते ऐसे प्रज्ञाहीन मिलेंगे साँसों के लेते ऊबेंगे ऐसे साहस-क्षीण मिलेगे कैसी है यह पतित कहानी? जीवन, यह मौलिक महमानी।। ऐसे भी हैं, श्रम के राही जिन पर जग-छवि मँडराती है ऊबें यहाँ मिटा करती हैं बलियाँ हैं, आती-जाती हैं। अगम अछूती श्रम की रानी! जीवन, यह मौलिक महमानी।।

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