उस प्रभात, तू बात न माने
उस प्रभात, तू बात न माने, तोड़ कुन्द कलियाँ ले आई, फिर उनकी पंखड़ियाँ तोड़ीं पर न वहाँ तेरी छवि पाई, कलियों का यम मुझ में धाया तब साजन क्यों दौड़ न आया? फिर पंखड़ियाँ ऊग उठीं वे फूल उठी, मेरे वनमाली! कैसे, कितने हार बनाती फूल उठी जब डाली-डाली! सूत्र, सहारा, ढूँढं न पाया तू, साजन, क्यों दौड़ न आया? दो-दो हाथ तुम्हारे मेरे प्रथम `हार' के हार बनाकर, मेरी `हारों' की वन माला फूल उठी तुझको पहिनाकर, पर तू था सपनों पर छाया तू साजन, क्यों दौड़ न आया? दौड़ी मैं, तू भाग न जाये, डालूँ गलबहियों की माला फूल उठी साँसों की धुन पर मेरी `हार', कि तेरी `माला'! तू छुप गया, किसी ने गाया- रे साजन, क्यों दौड़ न आया! जी की माल, सुगंध नेह की सूख गई, उड़ गई, कि तब तू दूलह बना; दौड़कर बोला पहिना दो सूखी वनमाला। मैं तो होश समेट न पाई तेरी स्मृति में प्राण छुपाया, युग बोला, तू अमर तस्र्ण है मति ने स्मृति आँचल सरकाया, जी में खोजा, तुझे न पाया तू साजन, क्यों दौड़ न आया?

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