दिवंगत पिता के प्रति
सूरज के साथ-साथ सन्ध्या के मंत्र डूब जाते थे, घंटी बजती थी अनाथ आश्रम में भूखे भटकते बच्चों के लौट आने की, दूर-दूर तक फैले खेतों पर, धुएँ में लिपटे गाँव पर, वर्षा से भीगी कच्ची डगर पर, जाने कैसा रहस्य भरा करुण अन्धकार फैल जाता था, और ऐसे में आवाज़ आती थी पिता तुम्हारे पुकारने की, मेरा नाम उस अंधियारे में बज उठता था, तुम्हारे स्वरों में। मैं अब भी हूँ अब भी है यह रोता हुआ अन्धकार चारों ओर लेकिन कहाँ है तुम्हारी आवाज़ जो मेरा नाम भरकर इसे अविकल स्वरों में बजा दे। 'धक्का देकर किसी को आगे जाना पाप है' अत: तुम भीड़ से अलग हो गए। 'महत्वाकांक्षा ही सब दुखों का मूल है' इसलिए तुम जहाँ थे वहीं बैठ गए। 'संतोष परम धन है' मानकर तुमने सब कुछ लुट जाने दिया। पिता! इन मूल्यों ने तो तुम्हें अनाथ, निराश्रित और विपन्न ही बनाया, तुमसे नहीं, मुझसे कहती है, मृत्यु के समय तुम्हारे निस्तेज मुख पर पड़ती यह क्रूर दारूण छाया। 'सादगी से रहूँगा' तुमने सोचा था अत: हर उत्सव में तुम द्वार पर खड़े रहे। 'झूठ नहीं बोलूँगा' तुमने व्रत लिया था अत:हर गोष्ठी में तुम चित्र से जड़े रहे। तुमने जितना ही अपने को अर्थ दिया दूसरों ने उतना ही तुम्हें अर्थहीन समझा। कैसी विडम्बना है कि झूठ के इस मेले में सच्चे थे तुम अत:वैरागी से पड़े रहे। तुम्हारी अन्तिम यात्रा में वे नहीं आए जो तुम्हारी सेवाओं की सीढ़ियाँ लगाकर शहर की ऊँची इमारतों में बैठ ग थे, जिन्होंने तुम्हारी सादगी के सिक्कों से भरे बाजार भड़कीली दुकानें खोल रक्खी थीं; जो तुम्हारे सदाचार को अपने फर्म का इश्तहार बनाकर डुगडुगी के साथ शहर में बाँट रहे थे। पिता! तुम्हारी अन्तिम यात्रा में वे नहीं आए वे नहीं आए

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