विवशता
कितना चौड़ा पाट नदी का कितनी भारी शाम कितने खोये खोये से हम कितना तट निष्काम कितनी बहकी बहकी-सी दूरागत वंशी टेर कितनी टूटी-टूटी-सी नभ पर विहंगो की फेर कितनी सहमी सहमी-सी क्षिति की सुरमई पिपासा कितनी सिमटी सिमटी-सी जल पर तट तरु अभिलाषा कितनी चुप-चुप गई रोशनी छिप-छिप आई रात कितनी सिहर सिहर कर अधरों से फूटी दो बात चार नयन मुस्काये खोये भीगे फिर पथराये कितनी बड़ी विवशता जीवन की कितनी कह पाए।

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