कुमार गन्धर्व का गायन सुनते हुए
दूर-दूर तक सोई पडी थीं पहाड़ियाँ अचानक टीले करवट बदलने लगे जैसे नींद में उठ चलने लगे । एक अदृश्य विराट हाथ बादलों-सा बढ़ा पत्थरों को निचोड़ने लगा निर्झर फूट पड़े फिर घूमकर सब कुछ रेगिस्तान में बदल गया । शान्त धरती से अचानक आकाश चूमते धूल भरे बवण्डर उठे फिर रंगीन किरणों में बदल धरती पर बरस कर शान्त हो गए । तभी किसी बाँस के बन में आग लग गई पीली लपटें उठने लगीं, फिर धीरे-धीरे हरी होकर पत्तियों से लिपट गईं । पूरा वन असंख्य बाँसुरियों में बज उठा, पत्तियाँ नाच-नाचकर पेड़ों से अलग हो हरे तोते बन कर उड़ गईं । लेकिन भीतर कहीं बहुत गहरे शाखों में फँसा बेचैन छटपटाता रहा एक बारहसिंहा । सारा जंगल काँपता हिलता रहा लो वह मुक्त हो चौकड़ी भरता शून्य में विलीन हो गया जो धमनियों से अनन्त तक फैला हुआ है ।

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