कितना अच्छा होता है
एक-दूसरे को बिना जाने पास-पास होना और उस संगीत को सुनना जो धमनियों में बजता है, उन रंगों में नहा जाना जो बहुत गहरे चढ़ते-उतरते हैं । शब्दों की खोज शुरु होते ही हम एक-दूसरे को खोने लगते हैं और उनके पकड़ में आते ही एक-दूसरे के हाथों से मछली की तरह फिसल जाते हैं । हर जानकारी में बहुत गहरे ऊब का एक पतला धागा छिपा होता है, कुछ भी ठीक से जान लेना खुद से दुश्मनी ठान लेना है । कितना अच्छा होता है एक-दूसरे के पास बैठ खुद को टटोलना, और अपने ही भीतर दूसरे को पा लेना ।

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