उम्र ज्यों-ज्यों बढ़ती है
उम्र ज्यों - ज्यों बढ़ती है डगर उतरती नहीं पहाड़ी पर चढ़ती है। लड़ाई के नये - नये मोर्चे खुलते हैं यद्यपि हम अशक्त होते जाते हैं घुलते हैं। अपना ही तन आखिर धोखा देने लगता है बेचारा मन कटे हाथ - पाँव लिये जगता है। कुछ न कर पाने का गम साथ रहता है गिरि शिखर यात्रा की कथा कानों में कहता है। कैसे बजता है कटा घायल बाँस बाँसुरी से पूछो - फूँक जिसकी भी हो, मन उमहता, सहता, दहता है। कहीं है कोई चरवाहा, मुझे, गह ले. मेरी न सही मेरे द्वारा अपनी बात कह ले। बस अब इतने के लिए ही जीता हूँ भरा - पूरा हूँ मैं इसके लिए नहीं रीता हूँ।

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