यूँ तो आशिक़ तिरा ज़माना हुआ
यूँ तो आशिक़ तिरा ज़माना हुआ मुझ सा जाँ-बाज़ दूसरा न हुआ ख़ुद-ब-ख़ुद बू-ए-यार फैल गई कोई मिन्नत-ए-कश-ए-सबा न हुआ मैं गिरफ़्तार-ए-उल्फ़त-ए-सय्याद दाम से छुट के भी रिहा न हुआ ख़बर उस बे-ख़बर की ला देती तुझ से इतना भी ऐ सबा न हुआ उन से अर्ज़-ए-करम तो क्या करते हम से ख़ुद शिकवा-ए-जफ़ा न हुआ हो के बे-ख़ुद कलाम-ए-हसरत से आज 'ग़ालिब' ग़ज़ल सरा न हुआ

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