न समझे दिल फ़रेब-ए-आरज़ू को
न हम छोड़ें तुम्हारी जुस्तुजू को
तिरी तलवार से ऐ शाह-ए-ख़ूबाँ
मोहब्बत हो गई है हर गुलू को
वो मुनकिर हो नहीं सकता फ़ुसूँ का
सुना हो जिस ने तेरी गुफ़्तुगू को
तग़ाफ़ुल इस को कहते हैं कि उस ने
मुझे देखा न महफ़िल में उदू को
नहीं पानी तो मय-ख़ाने में ऐ शैख़
जो कुछ मौजूद है लाऊँ वज़ू को
समझता ही नहीं है कुछ वो बद-ख़ू
न ख़ुद मुझ को न मेरी आरज़ू को
न भूला घर के आदा में भी 'हसरत'
तिरे फ़रमूदा-ए-ला-तक़नतू को