अमर राष्ट्र
छोड़ चले, ले तेरी कुटिया, यह लुटिया-डोरी ले अपनी, फिर वह पापड़ नहीं बेलने; फिर वह माल पडे न जपनी। यह जागृति तेरी तू ले-ले, मुझको मेरा दे-दे सपना, तेरे शीतल सिंहासन से सुखकर सौ युग ज्वाला तपना। सूली का पथ ही सीखा हूँ, सुविधा सदा बचाता आया, मैं बलि-पथ का अंगारा हूँ, जीवन-ज्वाल जलाता आया। एक फूँक, मेरा अभिमत है, फूँक चलूँ जिससे नभ जल थल, मैं तो हूँ बलि-धारा-पन्थी, फेंक चुका कब का गंगाजल। इस चढ़ाव पर चढ़ न सकोगे, इस उतार से जा न सकोगे, तो तुम मरने का घर ढूँढ़ो, जीवन-पथ अपना न सकोगे। श्वेत केश?- भाई होने को- हैं ये श्वेत पुतलियाँ बाकी, आया था इस घर एकाकी, जाने दो मुझको एकाकी। अपना कृपा-दान एकत्रित कर लो, उससे जी बहला लें, युग की होली माँग रही है, लाओ उसमें आग लगा दें। मत बोलो वे रस की बातें, रस उसका जिसकी तस्र्णाई, रस उसका जिसने सिर सौंपा, आगी लगा भभूत रमायी। जिस रस में कीड़े पड़ते हों, उस रस पर विष हँस-हँस डालो; आओ गले लगो, ऐ साजन! रेतो तीर, कमान सँभालो। हाय, राष्ट्र-मन्दिर में जाकर, तुमने पत्थर का प्रभू खोजा! लगे माँगने जाकर रक्षा और स्वर्ण-रूपे का बोझा? मैं यह चला पत्थरों पर चढ़, मेरा दिलबर वहीं मिलेगा, फूँक जला दें सोना-चाँदी, तभी क्रान्ति का समुन खिलेगा। चट्टानें चिंघाड़े हँस-हँस, सागर गरजे मस्ताना-सा, प्रलय राग अपना भी उसमें, गूँथ चलें ताना-बाना-सा, बहुत हुई यह आँख-मिचौनी, तुम्हें मुबारक यह वैतरनी, मैं साँसों के डाँड उठाकर, पार चला, लेकर युग-तरनी। मेरी आँखे, मातृ-भूमि से नक्षत्रों तक, खीचें रेखा, मेरी पलक-पलक पर गिरता जग के उथल-पुथल का लेखा ! मैं पहला पत्थर मन्दिर का, अनजाना पथ जान रहा हूँ, गूड़ँ नींव में, अपने कन्धों पर मन्दिर अनुमान रहा हूँ। मरण और सपनों में होती है मेरे घर होड़ा-होड़ी, किसकी यह मरजी-नामरजी, किसकी यह कौड़ी-दो कौड़ी? अमर राष्ट्र, उद्दण्ड राष्ट्र, उन्मुक्त राष्ट्र ! यह मेरी बोली यह `सुधार' `समझौतों' बाली मुझको भाती नहीं ठठोली। मैं न सहूँगा-मुकुट और सिंहासन ने वह मूछ मरोरी, जाने दे, सिर, लेकर मुझको ले सँभाल यह लोटा-डोरी !

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