मैं अपने से डरती हूँ सखि
मैं अपने से डरती हूँ सखि ! पल पर पल चढ़ते जाते हैं, पद-आहट बिन, रो! चुपचाप बिना बुलाये आते हैं दिन, मास, वरस ये अपने-आप; लोग कहें चढ़ चली उमर में पर मैं नित्य उतरती हूँ सखि ! मैं अपने से डरती हूँ सखि ! मैं बढ़ती हूँ? हाँ; हरि जानें यह मेरा अपराध नहीं है, उतर पड़ूँ यौवन के रथ से ऐसी मेरी साध नहीं है; लोग कहें आँखें भर आईं, मैं नयनों से झरती हूँ सखि ! मैं अपने से डरती हूँ सखि ! किसके पंखों पर, भागी जाती हैं मेरी नन्हीं साँसें ? कौन छिपा जाता है मेरी साँसों में अनगिनी उसाँसें ? लोग कहें उन पर मरती है मैं लख उन्हें उभरती हूँ सखि ! मैं अपने से डरती हूँ सखि  ! सूरज से बेदाग, चाँद से रहे अछूती, मंगल-वेला, खेला करे वही प्राणों में, जो उस दिन प्राणों पर खेला, लोग कहें उन आँखों डूबी, मैं उन आँखों तरती हूँ सखि ! मैं अपने से डरती हूँ सखि ! जब से बने प्राण के बन्धन, छूट गए गठ-बन्धन रानी, लिखने के पहले बन बैठी, मैं ही उनकी प्रथम कहानी, लोग कहें आँखें बहती हैं; उनके चरण भिगोने आयें, जिस दिन शैल-शिखिरियाँ उनको रजत मुकुट पहनाने आयें, लोग कहें, मैं चढ़ न सकूँगी- बोझीली; प्रण करती हूँ सखि ! मैं नर्मदा बनी उनके, प्राणों पर नित्य लहरती हूँ सखि ! मैं अपने से डरती हूँ सखि !

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