गिरि पर चढ़ते, धीरे-धीर
सूझ ! सलोनी, शारद-छौनी, यों न छका, धीरे-धीरे ! फिसल न जाऊँ, छू भर पाऊँ, री, न थका, धीरे-धीरे ! कम्पित दीठों की कमल करों में ले ले, पलकों का प्यारा रंग जरा चढ़ने दे, मत चूम! नेत्र पर आ, मत जाय असाढ़, री चपल चितेरी! हरियाली छवि काढ़ ! ठहर अरसिके, आ चल हँस के, कसक मिटा, धीरे-धीरे ! झट मूँद, सुनहाली धूल, बचा नयनों से मत भूल, डालियों के मीठे बयनों से, कर प्रकट विश्व-निधि रथ इठलाता, लाता यह कौन जगत के पलक खोलता आता? तू भी यह ले, रवि के पहले, शिखर चढ़ा, धीरे-धीरे। क्यों बाँध तोड़ती उषा, मौन के प्रण के? क्यों श्रम-सीकर बह चले, फूल के, तृण के? किसके भय से तोरण तस्र्-वृन्द लगाते? क्यों अरी अराजक कोकिल, स्वागत गाते? तू मत देरी से, रण-भेरी से शिखर गुँजा, धीरे-धीरे। फट पड़ा ब्रह्य! क्या छिपें? चलो माया में, पाषाणों पर पंखे झलती छाया में, बूढ़े शिखरों के बाल-तृणों में छिप के, झरनों की धुन पर गायें चुपके-चुपके हाँ, उस छलिया की, साँवलिया की, टेर लगे, धीरे-धीरे। तस्र्-लता सींखचे, शिला-खंड दीवार, गहरी सरिता है बन्द यहाँ का द्वार, बोले मयूर, जंजीर उठी झनकार, चीते की बोली, पहरे का `हुशियार'! मैं आज कहाँ हूँ, जान रहा हूँ, बैठ यहाँ, धीरे-धीरे। आपत का शासन, अमियों? अध-भूखे, चक्कर खाता हूँ सूझ और मैं सूखे, निर्द्वन्द्व, शिला पर भले रहूँ आनन्दी, हो गया क़िन्तु सम्राट शैल का बन्दी। तू तस्र्-पुंजों, उलझी कुंजों से राह बता, धीरे-धीरे। रह-रह डरता हूँ, मैं नौका पर चढ़ते, डगमग मुक्ति की धारा में, यों बढ़ते, यह कहाँ ले चली कौन निम्नगा धन्या ! वृन्दावन-वासिनी है क्या यह रवि-कन्या? यों मत भटकाये, होड़ लगाये, बहने दे, धीरे-धीरे और कंस के बन्दी से कुछ कहने दे, धीरे-धीरे !

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