वर्षा-नभ कैसा वन अपार
वर्षा-नभ कैसा वन अपार! मुख जिसमें फैला कर बैठा है, हिंसक-सा यह अन्धकार॥ तारे! कुछ तो दे दो प्रकाश, मेरे जीवन का हो न नाश; मैं भूला सा खद्योत गिर-- रहा हूँ पृथ्वी पर बार बार॥ सूना पल उर पर हुआ भार, पर काँटे-सा है चुभा प्यार; चंचल रेखा का चपला-पथ दिखला देगा अनुभूति द्वार॥ वर्षा-नभ कैसा वन अपार!

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