मैं आया बन सन्ध्या अपार
मैं आया बन सन्ध्या अपार। नभ खोलो तारक द्वार-द्वार॥ यह है निशीथ मुझमें विलीन, प्रति पल सूनेपन से नवीन; हो रही शीत स-समीर पीन, जग जड़ है मानो शिला-भार। नभ खोलो तारक द्वार-द्वार॥ तुझमें प्रकाश कितना अपार! रेखा-पथ से चू बार बार!! इन प्राणों में कर ले विहार; तुम वीणा, मैं हूँ स्वरित तार। नभ खोलो तारक द्वार-द्वार॥ पश्चिम में बनकर सूत्रधार, साकार दिवस कर निराकार, रंगों में हँस कर ऐ अपार! जग जीवन करते दिवस चार। नभ खोलो तारक द्वार-द्वार॥

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