मेरे सुमनों की सुरभि अरी
मेरे सुमनों की सुरभि अरी! पंखुड़ियों का द्वार खुला है आ इस जग में मोद भरी॥ भ्रमर भावना के पंखों पर कल प्रातः आया था, छू गुलाब का गात गीत उसने मन भर गाया था, भागी तू समीर में, उससे मन में इतनी व्यर्थ डरी॥ पंख-व्यजन झलती आई थी चंचल तितली रानी, तेरे उर से लगकर जीवन की कह गई कहानी, उर की सारी रूपराशि नभ में थी असफल हो बिखरी॥ मैं आया हूँ आज लिए अपनी साँसों की माला, उसमें निज अस्तित्व मिला दे मेरी कोमल बाला! मेरे उर के स्पंदन में तू झूले ओ प्रिय स्वर्ण-परी॥

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