समीरण, धीरे से बह जाओ
समीरण, धीरे से बह जाओ। मैं क्या हूँ, इन कलियों के कानों में यह कह जाओ॥ वे विकसित होकर जग को देंगी सुख सौरभ भार, किरणें हिम-कण के भीतर होंगी ज्योतित सुकुमार; तृण तृण ले लेंगे उज्ज्वलता का नूतन परिधान, विहगों को होगा अपने मधुमय कण्ठों का ज्ञान; इस जीवन में साँस-रूप हो कुछ क्षण को रह जाओ। समीरण, धीरे से बह जाओ।

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