मैं भूल गया यह कठिन राह
मैं भूल गया यह कठिन राह। इस ओर एक चीत्कार उठा, उस ओर एक भीषण कराह॥ मैं भूल गया यह कठिन राह। कितने दुख, बनकर विकल साँस भरते हैं मुझमें बार बार, वेदना हृदय बन तड़प रही रह रह कर करती है प्रहार; यह निर्झर--मेरे ही समान किस व्याकुल की है अश्रुधार! देखो यह मुरझा गया फूल जिसको कल मैंने किया प्यार! रवि शशि ये बहते चले कहाँ, यह कैसा है भीषण प्रवाह!! मैं भूल गया यह कठिन राह। किसने मरोड़ डाला बादल जो सजा हुआ था सजल वीर! केवल पल भर में दिया हाय, किसने विद्युत का हृदय चीर!! इतना विस्तृत होने पर भी क्यों रोता है नभ का शरीर! वह कौन व्यथा है, जिस कारण है सिसक रहा तरु में समीर!! इस विकल विश्व में भी बोलो, क्यों मेरे मन में उठे चाह? मैं भूल गया यह कठिन राह। वारिधि के मुख में रखी हुई यह लघु पॄथ्वी है एक ग्रास, जिसमें रोदन है कभी, या कि रोदन के स्वर में अट्टहास; है जहाँ मृत्यु ही शान्ति और जीवन है करुणामय प्रवास, वय के प्याले में क्षण क्षण के कण बढ़ा रहे हैं अधिक प्यास। दो बूँदों में ही जहाँ समझ पड़ती सागर की अगम थाह॥ मैं भूल गया यह कठिन राह। यह नव बाला है, नारि वेष-- रख कर आया है क्या वसन्त? जिसकी चितवन से पंचबाण निकला करते हैं बन अनन्त; जिसकी करुणा की दृष्टि विश्व-- संचालित कर देती तुरन्त, उसके जीवन का एक बार के क्षुद्र प्रणय में व्यथित अन्त! यह छल है, निश्वय छल ही है, मैं कैसे समझूँ इसे आह!! मैं भूल गया यह कठिन राह। रजनी का सूनापन विलोक हँस पड़ा पूर्व में चपल प्रात; यह वैभव का उत्पात देख दिन का विनाश कर जगी रात, यह प्रतिहिंसा इस ओर और उस ओर विषम विपरीत बात; नभ छूने को पर्वत-स्वरूप है उठा धरा का पुलक गात। है एक साँस में प्रेम दूसरी साँस दे रही विषम दाह॥ मैं भूल गया यह कठिन राह। ओसों का हँसता बाल-रूप यह किसका है छविमय विलास? विहगों के कण्ठों में समोद यह कौन भर रहा है मिठास? संध्या के अम्बर में मलीन यह कौन हो रहा है उदास? मेरी उच्छ्वासों के समीप कर रहा कौन छिप कर निवास? अब किसी ओर चीत्कार न हो, मैं कहूँ न अब दुख से कराह!! मैं भूल गया यह कठिन राह।

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