प्रपात के प्रति
अंचल के चंचल क्षुद्र प्रपात ! मचलते हुए निकल आते हो; उज्जवल! घन-वन-अंधकार के साथ खेलते हो क्यों? क्या पाते हो ? अंधकार पर इतना प्यार, क्या जाने यह बालक का अविचार बुद्ध का या कि साम्य-व्यवहार ! तुम्हारा करता है गतिरोध पिता का कोई दूत अबोध- किसी पत्थर से टकराते हो फिरकर ज़रा ठहर जाते हो; उसे जब लेते हो पहचान- समझ जाते हो उस जड़ का सारा अज्ञान, फूट पड़ती है ओंठों पर तब मृदु मुस्कान; बस अजान की ओर इशारा करके चल देते हो, भर जाते हो उसके अन्तर में तुम अपनी तान ।

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