अट नहीं रही है
अट नहीं रही है आभा फागुन की तन सट नहीं रही है। कहीं साँस लेते हो, घर-घर भर देते हो, उड़ने को नभ में तुम पर-पर कर देते हो, आँख हटाता हूँ तो हट नहीं रही है। पत्‍तों से लदी डाल कहीं हरी, कहीं लाल, कहीं पड़ी है उर में, मंद - गंध-पुष्‍प माल, पाट-पाट शोभा-श्री पट नहीं रही है।

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