व्यक्तिगत (कविता)
मैं कुछ दिनों से एक विचित्र सम्पन्नता में पड़ा हूँ संसार का सब कुछ जो बड़ा है और सुन्दर है व्यक्तिगत रूप से मेरा हो गया है सुबह सूरज आता है तो मित्र की तरह मुझे दस्तक देकर जगाता है और मैं उठकर घूमता हूँ उसके साथ लगभग डालकर हाथ में हाथ हरे मैदानों भरे वृक्षों ऊँचे पहा़ड़ों खिली अधखिली कलियों के बीच और इनमें से हरे मैदान वृक्ष पहाड़ गली और कली और फूल व्यक्तिगत रूप से जैसे मेरे होते हैं मैं सबसे मिलता हूँ सब मुझसे मिलते हैं रितुएँ लगता है मेरे लिए आती हैं हवाएँ जब जो कुछ गाती हैं जैसे मेरे लिए गाती हैं हिरन जो चौकड़ी भरकर निकल जाता है मेरे सामने से सो शायद इसलिए कि गुमसुम था मेरा मन थोड़ी देर से शायद देखकर क्षिप्रगति हिरन की हिले-डुले वह थोड़ा-सा खुले झूठे उन बन्धनों से बँधकर जिनमे वह गुम था आधी रात को बंसी की टेर से कभी बुलावा जो आता है व्यक्तिगत होता है मैं एक विचित्र सम्पन्नता में पड़ा हूँ कुछ दिनों से और यह सम्पन्नता न मुझे दबाती है न मुझे घेरती है हलका छोड़े है मुझे लगभग सूरज की किरन पेड़ के पत्ते पंछी के गीत की तरह रितुओं की व्यक्तिगत रीत की तरह सोने से सोने तक उठता-बैठता नहीं लगता मैं अपने आपको एक ऐश्वर्य से दूसरे ऐश्वर्य में पहुँचता हूँ जैसे कभी उनको तेज कभी सम कभी गहरी धाराओं में सम्पन्नता से ऐसा अवभृथ स्नान चलता है रातों-दिन लगता है एक नये ढंग का चक्रवर्ती बनाया जा रहा हूँ मैं एक व्यक्ति हर चीज़ के द्वारा व्यक्तिगत रूप से मनाया जा रहा हूँ !

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