आँखें बोलेंगी
जीभ की ज़रूरत नहीं है क्योंकि कहकर या बोलकर मन की बातें ज़ाहिर करने की सूरत नहीं है हम बोलेंगे नहीं अब घूमेंगे-भर खुले में लोग आँखें देखेंगे हमारी आँखें हमारी बोलेंगी बेचैनी घोलेंगी हमारी आँखें वातावरण में जैसे प्रकृति घोलती है प्रतिक्षण जीवन करोड़ों बरस के आग्रही मरण में और सुगबुगाना पड़ता है उसे संग से शरारे छूटने लगते हैं पहाड़ की छाती से फूटने लगते हैं झरने !

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