बोल राजा, स्वर अटूटे
बोल राजा, स्वर अटूटे मौन का अब बाँध टूटे जी से दूर मान बैठी थी जी से कैसे दूर? बता दो? ऐ मेरे बनवासी राजा! दूरी बनी कुसूर? बता दो? उठ कि भू पर चाँद टूटे बोल राजा, स्वर अटूटे मौन का अब बाँध टूटे! उस दिन जिस दिन तुम हँस- उट्ठे, मैंने पुनर्जन्म को पाया, फिर मेरे जी में तुम जनमे मैं फिर नीला-सा हो आया, अब वियोगिन साँझ टूटे, बोल राजा, स्वर अटूटे, मौन का अब बाँध टूटे! जीवन के इस बगीचे में सुमन खिले, फल भी तो झूले, पर मैंने सब फेंक दिये वे फले-फूले, वे फले-फूले! प्राण तू मुझसे न छूटे, बोल राजा, स्वर अटूटे, मौन का अब बाँध टूटे!   मेरे मानस में संकट के- कुंज शीश ऊँचा कर आये, तुतलाने का वचन दिये मेरी गोदी में तुम भर आये, बोल अपने कर न झूठे, बोल राजा, स्वर अटूटे मौन का अब बाँध टूटे! जी की माला पर लिख दूँ मैं कैसे तेरा देश निकाला? मेरी हर धक-धक खिल उट्ठी फिर क्यूँ चुनूँ फूल की माला? सुमन के छाले न फूटे, बोल राजा, स्वर अटूटे मौन का अब बाँध टूटे! जब कि मौन से भी ध्वनि झरती तब ध्वनि की ध्वनि रोक न राजा चल कि प्रलय भाँवरिया खेलें! प्राणों के आँगन में आजा; आज मैं बन लूँ बधूटी ’बाँध-गाँठ’ कि गाँठ छूटी! काढ़ जी पर बेल-बूटे बोल राजा, स्वर अटूटे मौन का अब बाँध टूटे!

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