मन धक-धक की माला गूँथे
मन धक-धक की माला गूँथे, गूँथे हाथ फूल की माला, जी का रुधिर रंग है इसका इसे न कहो, फूल की माला! पंकज की क्या ताब कि तुम पर-- मेरे जी से बढ़ कर फूले, मैं सूली पर झूल उठूँ तब, वह ’बेबस’ पानी पर झूले! तुम रीझो तो रीझो साजन, लख कर पंकज का खिल जाना युग-धन! सीखे कौन, नेह में-- डूब चुके तब ऊपर आना! पत्थर जी को, पानी कर-कर सींचा सखे, चरण-नंदन में यह क्या? पद-रज ऊग उठी मुझको भटकाया बीहड़ वन में नभ बन कर जब मैंने ताना अंधकार का ताना-बाना, तुम बन आये चंदा बाबू रहा तुम्हें अब कौन ठिकाना! नजर बन्द तू लिये चाँदनी घूम गगन में, बिना सहारा, मेरे स्वर की रानी झाँके बन कर छोटा-सा ध्रुव तारा मैं बन आया रोते-रोते जब काला-सा खारा सागर, तब तुम घन-श्याम आ बरसे जी पर काले बादल बन कर, हारा कौन? कि बरस-बरस कर तुमने मेरी शक्ति बढ़ाई, तेरी यह प्रहार-माला मेरे जी में मोती बन आई मैं क्या करता उनको लेकर तेरी कृपा तुझे पहिना दी, उमड़-घुमड़ कर फिर लहरों-- से, मैंने प्रलय-रागिनी गा दी! जब तुम आकर नभ पर छाये ’कलानाथ’बन चंदा बाबू मैं सागर, पद छूने दौड़ा ज्वार लिये होकर बेकाबू! आ जाओ अब जी में पाहुन, जग न जान पाये ’अनजानी’ कैदी! क्या लोगे? बोलो तो काला गगन? कि काला पानी? जब बादल में छुप कर, उसके गर्जन में तुम बोले बोली तब ज्वारों की भैरव-ध्वनि की मैंने अपनी थैली खोली! मेरी काली घहराई को विद्युत चमका कर शरमाया क्षणिक सजीले, इसीलिए मैं अपने हीरे मोती लाया! आज प्राण के शेष नाग पर माधव होकर पौढ़ो राजा! मेरे चन्द खिलौना जी के श्यामल सिंहासन पर आ जा!

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