तुम्हीं क्या समदर्शी भगवान
तु ही क्या समदर्शी भगवान? क्या तू ही है, अखिल जगत का न्यायाधीश महान? क्या तू ही लिख गया वासना दुनिया में है पाप? फिसलन पर तेरी आज्ञा- से मिलता कुम्भीपाक? फिर क्या तेरा धाम स्वर्ग है जो तप, बल से व्याप्त होती है वासना पूरिणी वहीं अप्सरा प्राप्त? क्या तू ही देता है जग- को, सौदे में आनंद? क्या तुझसे ही पाते हैं मानव संकट दुख-द्वन्द्व क्या तू ही है, जो कहता है सम सब मेरे पास? किन्तु प्रार्थना की रिश्वत-- पर करता शत्रु विनाश? मेरा बैरी हो, क्या उसका तू न रह गया नाथ? मेरा रिपु, क्या तेरा भी रिपु रे समदर्शी नाथ! क्या तू ही है, पतित अभागों का शासन करता है? क्या तू है सम्राट? लाज, तज न्याय दंड धरता है? जो तू है, तो मेरा माधव तू क्यो कर होवेगा तेरा हरि तो पतितों को उठने की अंगुलि देगा गो-गण में जो खेले, ग्वालों की झिड़की जो झेले जिसके खेल-कूद से टूटें जीवन शाप झमेले माखन पावे वृन्दावन में बैठा विश्व नचावे; वह मेरा गोपाल, पतन से पहिले पतित उठावे! व्याकुल ही जिसका घर है अकुलातों का गिरिघर है, मेरा हव नटवर है, जो राधा का मुरलीधर है।

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