हे प्रशान्त, तूफान हिये
हे प्रशान्त! तूफान हिये- में कैसे कहूँ समा जा? भुजग-शयन! पर विषधर- मन में, प्यारे लेट लगा जा! पद्मनाभ! तू गूँज उठा जा! मेरे नाभि-कमल से, तू दानव को मानव करता रे सुरेश! निज बल से! प्यारे विश्वाधार! विश्व से बाहर तुझे ढकेला, गगन-सदृश तुझ में न समाया, क्या मैं दीन अकेला? हे घनश्याम! धधकते हीतल- को शीतल कर दानी, हरियाला होकर दिखला दूँ तेरी कीमत जानी! हे शुभांग! सब चर्म-मोह- तज, यहाँ जरा तो आओ, तो अपनी स्वरूप-महिमा के सच्चे बन्दी पाओ। लक्ष्मीकान्त! जगज्जननी के कैसे होंगे स्वामी, उसके अपराधी पुत्रों से समझो जो बदनामी। श्यामल जल पर तैर रहे हो, श्याम गगन शिर धारा, शस्य श्यामला से उपजा है, श्याम स्वरूप तुम्हारा। कालों से मत रूठो प्यारे सोचो प्रकट नतीजा, जिससे जन्म लिया है वह था काला ही तो बीजा! मुझ से कह छल-छ्न्द- बने जो शान दिखाने वाले मैं तो समझूँगा बाहर क्या भीतर भी हो काले! पोथी-पत्रे आँख-मिचौनी बन्द किये हूँ देता, अजी योगियों को है अगम्य मैं भले समय पर चेता! वह भावों का गणित मुझे प्रतिपल विश्वास दिलाता जो योगी को है अगम्य वह पापी को मिल जाता! बढ़िये, नहीं द्रवित हो पढ़िये दीजे पात्र-हृदय भर, सार्थक होवे नाम तुम्हारा करुणालय भव-भय हर। मेरे मन की जान न पाये बने न मेरे हामी, घट-घट अन्तर्यामी कैसे? तीन लोक के स्वामी! भव-चिन्धियों में ममता का डाल मसाला ताजा चिक्कण हॄदय-पत्र प्रस्तुत है अपना चित्र बना जा, नवधा की, नौ कोने वाली, जिस पर फ्रेम लगा दूँ चन्दन, अक्षत भूल प्राण का जिस पर फूल चढ़ा दूँ।

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